अड़तालीसवें संस्करण का आमुख पुनरीक्षक लेखक को स्व० प्रोफेसर जयनारायण पाण्डेय जी की भारत की सांविधानिक विधि का अडतालीसा संस्करण प्रस्तुत करते हए बड़ी प्रसन्नता हो रही है। यह पुस्तक एल-एल० बी०, एल-एल० एम० तथा प्रशासनिक व न्यायिक सेवाओं के प्रतियोगी परीक्षार्थियों के लिए सर्वोत्तम पुस्तक के रूप में ग्राह्य हुई है। भारत के संविधान के शिक्षकों के लिए भी यह पुस्तक बहुत उपयोगी है।
इस संस्करण में समावेशित हाल ही के न्यायिक निर्णयों में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय इस प्रकार हैं
बासवराज बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 746 में उत्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि कुछ मामलों में गलत निर्णय दे दिए जाने के कारण अनुच्छेद 14 के अधीन अवैधानिकता या कपट को जारी नहीं रखा जा सकता। उक्त प्रावधान में नकारात्मक समता परिकल्पित न होकर सकारात्मक समता ही है। यदि कुछ व्यक्तियों को, जो समान स्थिति में हैं, भूल या गलती से अनुतोष/लाभ प्रदान कर दिया गया है तो इससे अन्य व्यक्तियों को उसी अनुतोष को प्राप्त करने का विधिक अधिकार नहीं मिल जाता है।
सुब्रामनियन स्वामी बनाम राजू द्वारा सदस्य, किशोर न्याय परिषद्, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 1649 में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि 18 वर्ष से कम आयु का अभियुक्त, जिस पर अन्य चार अभियुक्तों के साथ एक नवयुवती पर लैंगिक हमला करने का आरोप था और जिसमें पीड़िता की मृत्यु हो गयो थी, का नियमित दण्ड न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता। किशोर होने के कारण उसके द्वारा अभिकथित अपराध की जाँच और उसका विचारण किशोर बोर्ड को निर्दिष्ट किया जाएगा यद्यपि कि उसी मामले में अन्य अभियुक्तों को विचारण न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धाराएँ 376(2) तथा 302 के अधीन मृत्यु दण्ड का आदेश दिया था और उच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दिया था।
कर्नाटक राज्य बनाम एसोसिएटेड मैनेजमेण्ट आफ पी० एण्ड एस० स्कूल्स, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 2094 में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि एक बालक और उसकी ओर से उसके माता-पिता या संरक्षक को प्राथमिक विद्यालय स्तर पर शिक्षा का माध्यम चयन करने का अधिकार है। यह अनुच्छेद 19 (1) (क) के अधीन मूल अधिकार है न कि अनुच्छेद 21 या 21-क के अधीन। इस अधिकार की अनुज्ञेय सीमाएँ केवल वे होंगी जो संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में हैं।
राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 1863 में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 14 में ‘व्यक्ति’ शब्द ‘पुरुष’ या ‘महिला’ तक ही सीमित नहीं है। हिजड़ा/परालिंगी व्यक्ति जो न तो पुरुष हैं और न ही स्त्री ‘व्यक्ति’ अभिव्यक्ति के अन्तर्गत आते हैं। वे राज्य के सभी क्रियाकलापों के सभी क्षेत्रों में विधिक संरक्षण के हकदार हैं। अनुच्छेद 15 और 16 में ‘लिंग’ के अन्तर्गत लिंग अभिज्ञान के आधार पर भी भेदभाव सम्मिलित है। ‘लिंग’ शब्द का अर्थ जैविक लिंग परुष या स्त्री ही नहीं है बल्कि इसक अन्तर्गत व लोग भी आते हैं जो स्वयं को न तो पुरुष मानते हैं और न स्त्री ही। अनुच्छेद 19 (1) (क) के अधीन परालिंगी को अपने चयनित लिंग की पहचान बहुत से ढंग और साधनों से प्रकट करने की स्वतन्त्रता है। लिंग का आत्म-निर्णय वैयक्तिक स्वायत्तता का अविच्छिन्न भाग है तथा अनुच्छेद 21 के अधीन गारण्टीकृत स्वतंत्रता के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों में हिजड़ों के द्विलिंगीय होने के अतिरिक्त उन्हें तृतीय लिंग माने जाने का भी निर्देश देते हुए कहा गया कि केन्द्र तथा राज्य सरकारें उन्हें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की मान्यता देने के लिए कदम उठाएं तथा शैक्षिक संस्थाओं और लोक नियुक्तियों के मामलों में सब प्रकार का आरक्षण विस्तृत करें।
सबत राय बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 2014 एस०सी० २०. किया कि उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना देश के अनि reyuanimity) को बहिष्कृत कर देगा। न्यायालय को अपने आदेशों असीमित शक्ति (वास्तव में पवित्र बाध्यता) है। संविधान के अनुच्छेद न्यायालय में शक्ति निहित करते हैं कि न्यायिक आदेशों के आज्ञापालन, और आवश्यकता पड़ने पर विवश करें।
सी० 3241 में न्यायालय ने अभिनित के अभिशासन में सन्तुलन तथा स्थित गों के आज्ञापालन व अनुपालन कराने की 1129 तथा 142 के प्रावधान उच्चतम विक आदेशों के आज्ञापालन और अनुपालन करने के लिए करने के लिए समझायें उच्चतम न्यायालय ने तीन पट-दोष व्यक्तियों के मृत्युदण्ड को श्रीहरन बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 2014 एस० सी०1368 में उच्चम न्यायाधीश पीठ द्वारा राजीव गांधी हत्या के मामले से सम्बन्धित तीन सिद्ध-दोष व्यक्तियों आजीवन कारावास में इस संप्रेक्षण सहित बदल दिया कि आजीवन कारावास साहित बदल दिया कि आजीवन कारावास का अर्थ जीवन भर कारावार है। यह समुचित सरकार द्वारा द० प्र०सं० की धारा 432 के अधीन छूट के अध्यधीन है जो कि में वर्णित प्रक्रियात्मक नियंत्रण तथा द० प्र० सं० की धारा 433-क में मौलिक नियंत्रण के अ न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्यु दण्ड के कार्यान्वयन में अत्यधिक विलम्ब स्वयं मानसिक और वेदना उत्पन्न करता है जिससे पश्चात्वर्ती मृत्यु दण्ड देना अमानवीय और पाशविक हो जाता है।
है जो कि उक्त प्रावधान संविधान (99वाँ संशोधन) अधिनियम, 2014 जिस पर राष्ट्रपति की सम्मति 31 दिसम्बर 2013 प्राप्त हुई थी इस संस्करण में समावेशित है। इस संशोधन द्वारा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालया। न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले में परामर्श प्रक्रिया को समाप्त कर दिया गया है। उच्चतम न्यायालय के निर्णयों में जो कालेजियम की व्यवस्था की गयी थी उसे भी समाप्त कर दिया गया है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की व्यवस्था की गयी है जिसकी सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति व स्थानान्तरण किए जायेंगे। उच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के परामर्श से करेगा। संशोधन द्वारा तीन नये अनुच्छेद 124-क, 124-ख तथा 124-ग जोड़े गये हैं तथा अनुच्छेद 124 (2), 127 (1), 128,217 (1), 222 (1), 224 (1), (2), 224-क तथा 231 संशोधित किये गये हैं।
जनवरी, 2015 तक प्रकाशित महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों को समावेशित किया गया है। आशा है कि प्रसन्नता होगी। पूर्व संस्करणों की भांति यह संस्करण भी उपयोगी रहेगा।