प्रथम संस्करण का आमुख दो वर्ष पूर्व सांविधानिक विधि पर मेरी पस्तक अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई थी। तभी से छात्रों की और से यह निरन्तर माँग की जाती रही है कि इस विषय पर हिन्दी में भी एक पुस्तक लिखी जाय। यह सावदित है कि सांविधानिक विधि पर हिन्दी में छात्रोपयोगी पस्तकों का सर्वथा अभाव रहा है। प्रस्तुत पुस्तक छात्रों की इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए लिखी गयी है। आशा है प्रस्तुत पुस्तक छात्रों की आवश्यकता पूर्ण करेगी।
विधि के क्षेत्र में राष्ट्रभाषा हिन्दी में पस्तकों का लेखन कार्य संक्रान्ति-काल से गुजर रहा है। विधि का समस्त साहित्य प्राय: अंग्रेजी में ही है। भारतीय संविधान भी मुलतः आंग्ल संविधान के सिद्धान्तों पर आधारित है। साथ ही साथ इसमें विश्व के अन्य संविधानों के ग्राह्य तत्वों का भी समावेश किया गया है। ऐसी परिस्थिति में इस विषय पर पुस्तक-प्रणयन कठिन कार्य है। जहाँ तक बन पड़ा है, पुस्तक में सरलसुबोध भाषा के प्रयोग करने की चेष्टा की गयी है। इस पुस्तक में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित विधिशब्दावली का प्रयोग किया गया है।
भारत का संविधान
इस विषय पर अंग्रेजी में मेरी पुस्तक दिसम्बर, 1969 में प्रकाशित हुई थी। तब से आज तक इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने अनेक महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं जिनमें से बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवी पर्स प्रमुख हैं। संसद ने 24वाँ, 25वाँ, 26वाँ तथा 27वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित करके संविधान में भारी परिवर्तन भी कर दिया है। इस पुस्तक में भी महत्वपूर्ण निर्णयों तथा संविधान संशोधनों का समावेश किया गया है। भारतीय संविधान विश्व का विशालतम संविधान है। इतनी छोटी-सी कृति में इस विषय का विस्तृत तथा विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना एक टेढ़ी खीर है, तथापि मेरा प्रयास यही रहा है कि विषय से सम्बद्ध सारी आवश्यक सामग्री का यथोचित समावेश प्रस्तुत ग्रन्थ में किया जाय।
यह पुस्तक मुख्यतया विधि के स्नातकों एवं स्नातकोत्तर छात्रों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। परन्तु प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं के प्रत्याशियों का भी प्रयोजन यह पुस्तक सिद्ध कर सकेगी तथा इस विषय के उच्च अध्ययन के इच्छुक व्यक्तियों को भी निराश नहीं होना पड़ेगा। लेखक अधिकृत व्यक्तियों द्वारा दिये गये सुझावों का हार्दिक स्वागत करेगा। लेखक उन सभी न्यायवेत्ताओं का कृतज्ञ है जिनकी कृतियों से एक पुस्तक के लिखने में सहायता मिली है।
भारतीय संविधान की विशेषता
डॉ० वी० एन० शुक्ल, भूतपूर्व अध्यक्ष, विधि-विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय ने मेरी इस रचना को अपने आशीर्वचनों से अभिसिंचित कर मुझे भविष्य में इस दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। अत्यन्त दुःख के साथ कहना पड रहा है कि डॉ० शुक्ल का 17 अप्रैल, 1972 को अकस्मात निधन हो गया, परन्त अपने छात्रों की स्मति में उनका उदार व्यक्तित्व सदैव जीवित रहेगा। उन्हीं पुण्यात्मा की स्मृति में यह रचना समर्पित करते हुए मैं स्वयं को धन्य समझ रहा हूँ।
मैं अपने उन मित्रों और विशेषकर सहयोगी श्री सूर्यनारायण मिश्र का कृतज्ञ हूँ जो समय-समय पर मझे कार्य करने की प्रेरणा देते रहे हैं। मेरे सहयोगी श्री गंगेश्वर प्रसाद त्रिपाठी भी धन्यवाद के पात्र हैं. जिन्होंने इस पुस्तक की विषयानुसार अनुक्रमणिका बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
अन्त में, मैं इस पुस्तक के प्रकाशक ‘मेसर्स, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी’ को भी धन्यवाद दूँगा जिन्होंने इस पुस्तक को इतने सुन्दर रूप से प्रकाशित करने का कार्य बड़ी रुचि से सम्पन्न किया है।
संविधान के सहायक स्रोत
सन 1947 का वर्ष भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायगा। इसी वर्ष भारत अपनी सदियों की दासता से मुक्त हुआ था। इतने बलिदान के फलस्वरूप अर्जित इस स्वतन्त्रता को संजोये रखने के लिए इसे अभी बहुत कुछ करना था। सर्वप्रथम देश के प्रशासन का महत्वपूर्ण कार्य सामने था, जिसके लिए हमारे नेताओं को एक सुदृढ़ ढाँचा निर्मित करना था। भारत को एक संविधान की रचना करनी थी। यह कार्य सरल नहीं था। अनेक बाधाएँ थीं। इन सबके बावजूद संविधान-निर्मात्री सभा ने अथक परिश्रम तथा कार्यकुशलता का परिचय दिया और एक सर्वमान्य संविधान की रचना करने में सफल रही। स्वतन्त्रता के पवित्र दिन के पश्चात् दूसरा ऐतिहासिक महत्व का दिन था-26 जनवरी, 1950; जब भारत का संविधान लागू किया गया जिसने भारत को संसार के समक्ष एक नये गणतन्त्र के रूप में प्रस्तुत किया।
संविधान की परिभाषा-संविधान से तात्पर्य ऐसे दस्तावेज से है जिसकी एक विशिष्ट विधिक पवित्रता होती है जो राज्य सरकार के अंगों (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) के ढाँचे को और उनके प्रमुख कार्यों को निर्दिष्ट करता है और उन अंगों के संचालन के लिए मार्गदर्शक सिद्धान्तों को विहित करता है।
संवैधानिक विधि-संवैधानिक विधि की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। सामान्यत: इस शब्द का प्रयोग ऐसे नियमों के लिए किया जाता है जो सरकार के प्रमुख अंगों की संरचना, उनके पारस्परिक सम्बन्धों और प्रमुख कार्यों को विनियमित करते हैं। विधिक अर्थ में ये नियम दोनों प्रकार के होते हैं-कठोर विधि नियम और प्रथाएँ (usage), जिन्हें सामान्यत: अभिमत (convention) कहा जाता है जो अधिनियमित नहीं होती हैं किन्तु सरकार से सम्बन्धित सभी व्यक्तियों पर बाध्यकारी होती हैं। ये ऐसे अनेक नियम और प्रथाएँ हैं जिनके अनुसार हमारी सरकार की प्रणाली का संचालन किया जाता है। ये इस अर्थ में विधि का भाग नहीं थे कि उनके उल्लंघन के लिए न्यायालय में कार्यवाही की जा सकती थी। यद्यपि एक संवैधानिक विधि का अधिवक्ता सरकार के विधिक पहलुओं से ही सरोकार रखता है फिर भी उसे संवैधानिक विधि के इतिहास और राजनीतिक संस्थाओं के संचालन के लिए उपर्युक्त प्रथाओं और अभिमतों का ज्ञान रखना आवश्यक होता है।
संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
किसी भी देश का संविधान एक दिन की उपज नहीं होता है। संविधान एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम होता है। अतएव भारतीय संविधान के आधुनिक विकसित रूप को समझने के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। ऐतिहासिक प्रक्रिया के सम्यक् ज्ञान के बिना हम संविधान को भलीभाँति नहीं समझ सकते हैं। इसके लिए हमें अंग्रेजों के भारत-आगमन काल से पहले नहीं जाना होगा; क्योंकि भारत में सांविधानिक परम्परा का विकास अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय से ही प्रारंभ हआ। आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं का उद्भव एवं विकास इसी काल में हुआ। भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकास का काल सन् 1600 ई० से प्रारम्भ होता है। इसी वर्ष इंग्लैण्ड में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को स्थापना की गयी थी। यहाँ हम भारत में अंग्रेजों के आगमन के समय से लेकर आज तक के भारतीय संविधान के क्रमिक विकास का संक्षिप्त विवरण देंगे। इस विकास-काल को हम पाँच भागों में विभाजित कर सकते हैं