1600 से 1765 [अंग्रेजों का भारत आगमन]
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना-सोलहवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में महारानी एलिजा शासन था। इस काल को इंग्लैण्ड के इतिहास में स्वर्णकाल कहा जाता है। जनता सुखी एवं सम्पन्न थी। ने साहसिक समुद्री यात्राएं करना प्रारम्भ कर दिया था। ठीक उसी समय वहाँ भारतवर्ष की अपार धन-स की खबर पहुँची। भारतवर्ष की अपार धन-सम्पत्ति को प्राप्त करने की अभिलाषा तथा समुद्री यात्राओं की ने अंग्रेजों को भारत की ओर आकर्षित किया। कुछ साहसिक अंग्रेज व्यापारियों ने एक कम्पनी स्थापित की जो आगे चलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसकी स्थापना महारानी एलिजाबेथ के एक राजलेख (Charter) द्वारा की गयी, जिसे ‘1600 ई० का राजलेख’ कहा जाता है। इस राजलेख द्वारा कम्पनी को पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कम्पनी के प्रबन्ध की समस्त शक्ति गवर्नर तथा चौबीस सदस्यों की एक परिषद् में निहित थी। गवर्नर जनरल की परिषद् (Governor General in Council) को ऐसे नियमों, विधियों एवं अध्यादेशों को बनाने का प्राधिकार दिया गया था जिससे कम्पनी के प्रशासन एवं प्रबन्ध को सुचारु रूप से चलाया जा सके तथा उसके कर्मचारियों को अनुशासन में रखा जा सके। कम्पनी को इन विधियों के उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को समचित दण्ड देने की शक्ति भा प्राप्त था। यद्यपि कम्पनी की विधायी (legislative) शक्ति अत्यन्त सीमित थी, फिर भी इसका बड़ा ऐतिहासिक महत्व था क्योंकि इसमें वे बीज निहित थे जिनसे अन्ततोगत्वा आंग्ल-भारतीय विधि-संहिताओं का विकास हुआ।
कम्पनी ने भारतवर्ष के प्रत्येक व्यापारिक स्थानों में अपने व्यापारिक केन्द्र एवं कारखानों की स्थापना की। भारत में कम्पनी का सर्वप्रथम व्यापारिक केन्द्र सूरत था। सूरत में कारखाने की स्थापना करने की अनुमति उन्हें मुगल बादशाह जहाँगीर से प्राप्त हुई थी। कालान्तर में कम्पनी ने बम्बई, मद्रास और कलकत्ता में भी अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किये। इन नगरों को प्रेसीडेन्सी नगर कहा जाता था। इसका प्रशासन प्रेसीडेन्ट एवं उसकी परिषद् करती थी। इस काल में अंग्रेजों ने भारत में अपने व्यापारिक केन्द्र की स्थापना भारतीय शासकों की अनुमति से की थी। किन्तु धीरे-धीरे कम्पनी का व्यापारिक दृष्टिकोण बदलने लगा और वह भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का विचार करने लगी। भारत में एक व्यापारिक संस्था के रूप में विकसित होकर उसने अंग्रेजी साम्राज्य की बुनियाद डालने का कार्य किया। मिस्टर इलबर्ट के अनुसार-“कम्पनी को जो रियायतें मुगल शासकों से प्राप्त हुई थीं, उन्होंने कम्पनी को भारत में संस्थापित कर दिया और ब्रिटिश सम्राट् इस कम्पनी के माध्यम से दूसरी शक्तियों के विरोध में प्रादेशिक सम्प्रभु बन गया। अन्त में ब्रिटिश सम्राट ही सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत में सम्प्रभुता रखने लगा और अधीनस्थ देशी रियासतों का सर्वोच्च अधिकारी बन गया।
1726 का राजलेख
इस राजलेख द्वारा कलकत्ता, बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सियों के गवर्नर एवं उसकी परिषद् को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई। यह एक महत्वपूर्ण कदम था। अब तक विधि बनान की शक्ति कम्पनी के इंग्लैण्ड-स्थित निदेशक-बोर्ड (Board of Directors) में निहित थी। वे लोग भारत की परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ होते थे। इस प्रकार 1726 के राजलेख ने भारत-स्थित कम्पन का सरकार, गवर्नर जनरल की परिषद को उपनियम, नियम और अध्यादेशों को पारित करने का प्राधि प्रदान किया और उनके उल्लंघन करने वालों को दण्डित करने की शक्ति प्रदान की। किन्तु गवनर जनरल उसकी परिषद् की विधि बनाने की शक्ति पर दो मुख्य प्रतिबन्ध थे-प्रथम, यह कि उसके द्वारा निर्मित विधियाँ आंग्ल विधियों के विपरीत न हों और दूसरे, यह कि वे युक्तियुक्त हों। उपर्युक्त विधियाँ तब तक प्रभावी नहीं होती थीं जब कि वे इंग्लैण्ड-स्थित कम्पनी के निदेशकों की सभा द्वारा अनमोदित न कर दी गयी
अभी तक कम्पनी एक व्यापारिक संस्था के रूप में ही कार्य कर रही थी। इसे शासक बनने का अवसर प्राप्त नहीं हो सका था। किन्त इसके पश्चात कछ ऐसी महत्वपर्ण घटनाएँ घटीं जिनके परिणामस्वरूप कम्पना ने अपना व्यापारिक चोला बदल दिया और बंगाल का शासन-सूत्र उसके हाथों में आ गया। यह काल भारत में मुगल साम्राज्य के पतन का काल था। उसकी शक्ति क्षीण हो चली थी। इस अवसर का अंग्रेजों ने पूरा-पूरा लाभ उठाया। सन् 1757 ई० में अंग्रेज प्लासी की लडाई में बंगाल के अन्तिम शासक नवाब सिराजुद्दौला को हराकर बंगाल प्रान्त के वास्तविक शासक बन बैठे। प्लासी की जीत से ही भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का नाव पड़ी। सन् 1765 में मुगल बादशाह शाह आलम ने कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवान बना दिया। इसके परिणामस्वरूप इन इलाकों में मालगुजारी वसूलने तथा दीवानी न्याय-प्रशासन का उत्तरदायित्व कम्पनी पर आ गया। मिस्टर इलबर्ट ने कहा कि “सन् 1765 ई० को ऐंग्लो-इण्डियन इतिहास का युग प्रवर्तक काल समझा जा सकता है क्योंकि इसी समय से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत में प्रादेशिक सम्प्रभुता स्थापित करने का काल आरम्भ होता है। अब कम्पनी अपने व्यापारिक रूप को पूर्णतया त्याग कर एक वास्तविक शासक के रूप में सामने आयी।”
1765 से 1858 [ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना]
1773 का रेगुलेटिंग ऐक्ट-दीवानी अनुदान के फलस्वरूप कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा प्रान्तों की वास्तविक शासक बन गयी। इन प्रदेशों का वास्तविक प्रशासन कम्पनी के हाथों में आ जाने से कम्पनी के अधिकारीगण स्वच्छन्द हो गये। प्रदेशों में प्रशासन की बागडोर कम्पनी के सेवकों पर ही थी, जिन्हें बहुत कम वेतन मिलता था। उन लोगों ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और भारतवासियों का भरपूर शोषण करने लगे। उनके अन्दर एक ही धुन लगी रहती थी कि वे कैसे भारत में लूट-खसोट कर अधिक से अधिक धन इंग्लैण्ड ले जा सकें। स्थिति यह थी कि जहाँ कम्पनी के कर्मचारी इस प्रकार अधिक से अधिक धन एकत्र कर रहे थे, वहीं कम्पनी का व्यापार घाटे में जा रहा था; फलतः कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार से ऋण की माँग की। इन परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश सरकार तथा वहाँ के राजनीतिज्ञों के मन में यह धारणा बन गयी थी कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन में बहुत बड़ी गड़बड़ी हो गयी है। कम्पनी के अवकाशप्राप्त कर्मचारियों के धनी होकर इंग्लैण्ड लौटने तथा उनकी बढ़ती हुई अपकीर्ति की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित हुए बिना न रह सका। उनको यह विश्वास हो गया कि उनका धन एवं सम्पत्ति भारतीय जनता के शोषण का ही परिणाम है। इसके अतिरिक्त कम्पनी के बढ़ते हुए वैभव को देखकर उनको कम्पनी के राज्य-क्षेत्र में व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई; फलत: कम्पनी के मामलों की जाँच के लिए ब्रिटिश संसद ने एक गोपनीय समिति (Secret Committee) की नियुक्ति की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कम्पनी के प्रशासन में अनेक त्रुटियाँ दिखायीं और उनके शीघ्रातिशीघ्र सुधार करने के लिए सिफारिश की। गोपनीय समिति की सिफारिश के फलस्वरूप ब्रिटिश संसद् ने सन् 1773 ई० का रेगुलेटिंग ऐक्ट पारित किया। रेगुलेटिंग ऐक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासन में निम्नलिखित परिवर्तन किये गये
भारत में सरकार का स्वरूप-
रेगुलेटिंग ऐक्ट ने भारत में एक सुनिश्चित शासन-पद्धति की शुरुआत की। रेगुलेटिंग ऐक्ट के पारित होने के पूर्व कलकत्ता, बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेन्सियाँ एक-दूसरे से अलग तथा स्वतन्त्र होती थीं। उनका प्रशासन गवर्नर और उसकी परिषद् द्वारा होता था जो इंग्लैण्ड-स्थित निक बोर्ड के प्रति उत्तरदायी थी। रेगुलेटिंग ऐक्ट ने बंगाल प्रेसीडेन्सी के प्रशासन के लिए एक गवर्नर जनरल की नियुक्ति की। प्रशासन का कार्य गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् करती थी। गवर्नर जनरल की परिषद् में चार सदस्य थे। प्रथम गवर्नर जनरल और उसके चार सभासदों का नामांकन ऐक्ट में ही कर दिया गया था। सम्पूर्ण कलकत्ता प्रेसीडेन्सी का प्रशासन तथा सैनिक-शक्ति इसी सरकार में निहित थी। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सिविल इलाकों के प्रशासन का अधिकार भी गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को ही प्राप्त था।